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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए

Adhyatmavad Hi Kyon a hindi book by Sriram Sharma Acharya - अध्यात्मवाद ही क्यों ? - श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1. व्यक्तिगत संदर्भ में

आज का व्यक्ति समस्याओं के जाल में दिन-दिन जकड़ता चला जा रहा है। क्या धनी, क्या निर्धन, क्या विद्वान, क्या अशिक्षित, क्या रुग्ण, क्या स्वस्थ सभी स्तर के मनुष्य अपने को अभावग्रस्त और संकटत्रस्त स्थिति में पाते हैं। भूखे का पेट-दर्द दूसरी तरह का और अतिभोजी का दूसरे ढंग का, पर कष्ट पीड़ित तो दोनों ही समान रूप से हैं। जीवन क्षेत्र में तथा संसार में समस्याओं के आकार-प्रकार अनेक प्रकार के दिखते हैं। उनमें भिन्नता भी बहुत रहती हैं। एक-दूसरे से असंबद्ध प्रतीत होती है एक ही कारण होता है, अध्यात्मवादी दृष्टकोण। यदि इस तथ्य को समझ लिया जाए तो असंख्य समस्याओं और अगणित संकटों का समाधान एक ही उपाय से कर सकना संभव हो जायेगा। प्रकाश के अभाव का ही नाम अंधकार है। जो रोशनी होती है तो अंधकार चला जाता है। अध्यात्म की ज्योति बुझ जाने से संकट खड़े होते हैं और उस प्रकाश के धूमिल पड़ जाने से अनेकानेक समस्याएँ उठती और उलझती चली जाती हैं।

छुट-पुट उपचार तो अनेक ढंग से निकल आते हैं किन्तु टिकाऊ हल अध्यात्म के सहारे से ही निकल ही सकता है। पेट में अपच होने से रक्त अशुद्ध होता है और बढ़ती हुई सड़न से अनेक नाम रुप वाले रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इनका स्थानीय और सामयिक उपचार करने से तात्कालिक राहत मिल सकती है, पर स्थायी समाधान ढूँढना हो तो रक्त शुद्धि और अपच निवारण की बात सोचनी पड़ेगी। सारे शरीर पर निकली चेचक की एक-एक फुँसी की मरहम पट्टी कैसे की जायेगी ? उपाय वही सही है, जिससे रक्त में घुले विष का निवारण करके, आज की चेचक और कल की होनेवाली अन्य बीमारियों की जड़ काटी जाए। सड़े कीचड़ में रेंगने वाले कीड़े उपजते हैं और गंदी के ढेर में मक्खी, मच्छरों की उत्पत्ति होती है। हर कीड़े और मच्छर के मारने के लिए लाठी लिए फिरना बेकार है। मार देने पर भी वे उपज पड़ेंगे। आधार बना रहेगा तो उत्पत्ति का क्रम रुकेगा नहीं। इन कृमि-कीटकों से छुटकारे का एक ही उपाय है कि कीचड़ और गंदगी को साफ कर दिया जाए।

परमात्मा ने अपने पुत्र मनुष्य को इस विश्व उद्यान में बहुत कुछ पाने कमाने के लिए भेजा है। समस्याएँ उनकी भूलों से सचेत करने वाली लाल बत्ती की तरह है। यदि हम मनुष्योचित्त दृष्टिकोण अपनाएँ और शालीनता का जीवन जिएँ, तो अवरोधों से जूझकर शक्ति नष्ट करने की समस्या न रहेगी और प्रगति पथ पर अनवरत गति से बढ़ते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करना ही तब अपने सामने एकमात्र कार्य रह जायेगा। आइए, विचार करें कि हमारे व्यक्तिगत जीवन में आए दिन कौन-कौन-सी समस्याएँ त्रास देती हैं ? वे क्यों उत्पन्न होती हैं और उनका स्थिर समाधान क्या हो सकता है ?
मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की सारी समस्याएँ इन पाँच वर्गों के अंतगर्त आ जाती हैं- (1) शारीरिक (2) मानसिक (3) आर्थिक (4) पारिवारिक तथा (5) आत्मिक।

(1)    सर्वप्रथम समस्या स्वास्थ्य संकट की है। हममें से अधिकांश को शारीरिक दुर्बलता घेरे रहती है और बीमारियों का दौर चढ़ा रहता है। विचारणीय है कि ऐसा क्यों होता है ? सृष्टि में असंख्य प्राणी हैं। वे जन्मते-मरते तो हैं पर बीमार कोई नहीं पड़ता।
मनुष्य और उसके शिकंजे कसे हुए थोड़े-से पालतू पशुओं को छोड़कर स्वच्छंद निर्वाह करने वाले जीव जन्तुओं में से किसी को दुर्बलता या रुगण्ता की व्यथा नहीं सहनी पड़ती। बुढ़ापा और मृत्यु का सामना तो सबको करना पड़ता है, पर जब तक जीता है, तब तक समूचा प्राणी जगत निरोग हो जाता है। अकेले मनुष्य पर ही दुर्बलता और रुग्णता की घटाएँ छाई रहती हैं। इस अपवाद का कारण एक ही है- उसका आहार-विहार संबंधी असंयम, प्रकृति के निर्देशों का धृष्टतापूर्वक उल्लंघन।

जीभ का चटोरापन

स्वादिष्टता के नाम पर अभक्ष्य पदार्थों का समय-कुसमय अनावश्यक मात्रा में उदरस्थ करते रहने से पेट की क्षमता नष्ट होती है और वह अत्याचार पीड़ित, दीन-दुर्बल की तरह अपना काम निपटाने में असमर्थ हो जाता है। पेट की अपच हजार बीमारियाँ उत्पन्न करती है, यह तथ्य सर्वविदित है। लुकमान सही कहते थे कि ‘‘मनुष्य अपने असमय मरने और गड़ने के लिए अपनी कब्र आप खोदता है।’’ इंद्रिय असंयम से वह अपने शक्ति भंडार को होली की तरह जलाता है और बर्फ की तरह अपने पौरुष को गलाकर समाप्त करता है। अस्त-व्यस्त दिनचर्या, आलस्य, प्रमाद, गंदगी जैसे दुर्गुण अपनाने वाले, प्रकृति की प्रेरणाओं और नियत मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले नियति की दंड व्यवस्था से बच नहीं सकते। उन्हें रुग्णता की व्यथा सहनी ही पड़ेगी।

इसका निवारण दवादारू की जादूगरी से नहीं हो सकता। यदि असंयमी जीवन जीने पर भी दवादारु के सहारे स्वास्थ्यरक्षा संभव रही होती तो अमीरों ने और चिकित्सकों ने अब तक हाथी जैसा स्वास्थ्य सँजो लिया होता। प्रकृति की उद्दंड अवज्ञा करने वाले अपराधी क्षमा योग्य नहीं होते और आये दिन रुग्णता से कराहते हैं। यदि हमें सचमुच ही स्वास्थ्य की स्थिरता अपेक्षित हो तो उसका एकमात्र उपाय प्राकृतिक जीवन है। आहार-विहार का संयम कड़ाई से पालन करने के अतिरिक्त और किसी उपाय से स्वास्थ्यरक्षा की समस्या हल नहीं हो सकती।

कहना न होगा कि इंद्रिय-लिप्साओं से छुटकारा पाना, सुव्यवस्थित जीवनक्रम अपनाना शारीरिक क्षेत्र में प्रयुक्त होनेवाली अध्यात्म प्रक्रिया ही है। आत्मसंयम और आत्मनुशासन का नाम ही अध्यात्म है। उसका प्रयोग यदि विवेकशीलता और दूरदर्शिता अपनाते हुए स्वास्थ्य प्रयोजन के लिए किया जाता रहे, तो हममें से किसी को भी न दुर्बलता घेरेगी और न रुग्णता छाई रहेगी। अब या अब से हजार वर्ष बाद जब भी स्वास्थ्य संकट से निपटना आवश्यक प्रतीत होगा और उसका स्थितर समाधान खोजा जायेगा तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि जीवनचर्या का निर्धारण अध्यात्मवादी दृष्टिकोण से किया जाए और शारीरिक संपदा का उपयोग करने में प्रकृति निर्देशों का पालन करने के लिए कड़ाई के साथ संयम बरता जाए। जिस दिन यह तथ्य हृदयंगम कर लिया जायेगा, उसे व्यावहारिक जीवन में उतार लिया जायेगा, उस दिन स्वास्थ्य संकट का अंधकार कहीं भी दृष्टिगोचर न होगा।

(2)    मानसिक उद्विग्नता मनुष्य जीवन के अंतर्गत उपस्थित दूसरा संकट है। हममें से अधिकांश व्यक्ति उद्विग्न, निराश, चिंतित, विक्षुब्ध, भयभीत, कायर पाए जाते हैं। मानसिक दृष्टि से शांत, संतुष्ट, संतुलित और प्रसन्न कोई विरले ही दीख पड़ेंगे। इसके लिए दूसरों के व्यवहार और परिस्थितियों को भी सर्वथा निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्वीकार करना होगा कि इससे बहुत बड़ा कारण अपने चिंतन तंत्र की दुर्बलता ही रहती है। हम अपनी ही इच्छा की पूर्ति चाहते हैं, हर किसी को अपने ही शासन में चलाना चाहते हैं और हर परिस्थिति में अपनी मर्जी के अनुरुप बदलने की अपेक्षा करते हैं। यह मूल गति है कि यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है, इससे व्यक्तियों का विकास अपने क्रम से हो रहा है और परिस्थितियाँ अपने प्रवाह से बह रही है। हमें उनके साथ तालमेल बिठाने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिए।

परिस्थितिजन्य असंतोष भी अधिकांश में तो अपने चिंतन दोष के कारण उत्पन्न होते हैं। यदि अमीरों के साथ अपनी तुलना की जाए तो स्थिति गरीबों जैसी प्रतीत होगी और दु:ख बना रहेगा। यदि उसकी तुलना में मापदण्ड को गरीबों के साथ सदा किया जाए तो प्रतीत होगा कि अपनी वर्तमान स्थिति में लाखों करोड़ों से अच्छी है। गरीबी और अमीरी सापेक्ष है। बड़े अमीरों की तुलना में हर कोई गरीब ठहरेगा और हर गरीब को अपने से अधिक अभावग्रस्त दिखाई पड़ेंगे। उनसे तुलना करने पर वह अपने को सुसंपन्न अनुभव कर सकता है। दृष्टिकोण सही होने से व्यक्ति अपने विकास के लिए प्रयास करते हुए भी असंतोष और घुटन से बच सकता है।

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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